लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
बचपन में मैं भी चाहती थी कि मैं लड़का बन जाऊँ। सोचती थी, सुबह नींद से जागते ही, अचानक देखूगी मैं लड़का बन गयी हूँ, तब मैं अब्बू-अम्मी का लाड़-प्यार ज़्यादा पाऊँगी, सेवा-जतन भी ज़्यादा पाऊँगी। मैं जो माँगूंगी, मुझे दिया जायेगा। महँगे-महँगे खिलौने चाहूँगी, मिलेंगे। फैशनेबल कपड़े, जूते मिलेंगे। मुझे घर भर में सबसे अच्छा खाना मिला करेगा। जहाँ जाने का मन करेगा, जा सकूँगी, शहर के बड़े-बड़े मैदानों में खेल सकूँगी। मुझे कोई नहीं रोकेगा। मेरे सारे साध-आह्वाद पूरा करने के लिए सैकड़ों लोग हाथ बाँधे खड़े रहेंगे। तब मैं राजा-बादशाह बन जाऊँगी। मैं बेटा बन जाऊँगी। मैं दुनिया बन जाऊँगी, मैं भगवान बन जाऊँगी।
जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गयी, मेरी दुर्दशा भी बढ़ती गयी। चूँकि मैं लड़की थी इसलिए लानत-मलामत! गाली-गलौज! बात-बात पर बालों को मुट्ठी में दबोचकर, झटके पर झटका। मैं कमरे के किसी कोने में आँसू बहाती रहती थी और सोचती रहती थी 'कितने कोई तो अचानक लड़का बन जाते हैं, मैं क्यों नहीं बन सकती?' मेरे उभारों की तरफ़ मर्दो की लोलुप निगाहें! मौका लगते ही पंजा जमा देना। जब माहवारी हुई तो सुना मैं अपवित्र हो गयी हूँ। यह मत छुओ, वह मत करो। चूंकि मैं लड़की थी, इसलिए दिन-रात मुझे तटस्थ रहना पड़ता था। हर वक्त चौकन्नी रहना पड़ता था-अभी मुझ पर शायद कोई टूट पड़ेगा, बलात्कार करेगा या गला दबोचकर मार डालेगा। अभी शायद कोई मेरे चेहरे पर एसिड फेंक देगा या अभी ही कोई मेरे तन-बदन पर किरोसिन छिड़ककर आग लगा देगा, और कुछ नहीं तो ठण्डे दिमाग़ से मुझे टुकड़ा-टुकड़ा कर डालेगा।
काश, मैं लड़का हो जाती, तो निश्चिन्त हो जाती। आराम से जीती। परिवार, समाज, कानून, राष्ट्र की तरफ़ से हर किस्म की मदद मिलती। लिखाई-पढ़ाई, रिसर्च, अर्जन, उपार्जन, जीवन-यापन में मन लगा पाती। लेकिन, चूँकि मैं लड़की थी इसलिए जीवन का हर पल अपनी रक्षा-सुरक्षा में गुज़र रहा था। कामकाज में भी मन लगाना पड़ता था और अनगिनत पंजों के हमले से भी अपने को बचाना होता था। किसी भी दिन सड़क पर निश्चिन्त हो कर, अकेले नहीं चल पाती थी। कभी किसी दिन पार्कों की सैर नहीं कर सकी, नदी किनारे बैठ नहीं सकी, समुद्र के सामने भी कभी पल-दो पल खड़ी नहीं रह सकी। यह मर्दो की दुनिया है। इस दुनिया में और कोई भी, कुछ भी, कोई भी प्राणी इस क़दर असुरक्षित नहीं होता, जितनी असुरक्षित . औरत होती है। शहर, बन्दर, गाँव-गंज, रास्ता-घाट, खेत-मैदान कहीं भी, कभी भी मैं अकेली सुरक्षित नहीं थी, आज भी नहीं हूँ। अपनी रक्षा के लिए हमेशा से ही मुझे अपने साथ अंगरक्षक लेकर चलना पड़ा। मुझे सुरक्षा देने के लिए कोई-न-कोई मेरे साथ रहा क्योंकि अकेली मैं अपनी सुरक्षा के लिए काफ़ी नहीं थी। देश, देश का कानून, समाज, समाज की रीति-नीति लड़की को सुरक्षा देने के लिए, कुछ भी काफ़ी नहीं है। बहुत-से लोग ऐसे में फूत्कार कर कहेंगे, सुरक्षा का अभाव तो मर्दो के लिए भी है। हाँ, यह तो सच है। मर्दो के लिए भी सुरक्षा का अभाव तो है। मर्दो के लिए सुरक्षा की जितनी कमी है, औरतों के लिए वह अभाव तो है ही, उससे लाख गुना ज़्यादा अभाव इसलिए है, क्योंकि उन लोगों ने औरत के रूप में जन्म लिया है। यह समस्या किसी मर्द के जीवन में नहीं होती। प्राणी जगत् में यह समस्या अन्य किसी को नहीं होती।
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- इतनी-सी बात मेरी !
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- सुन्दरी
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- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
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- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
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- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
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- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
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- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं